"इधर बीच मेरे कमरे में कोई आया था क्या?"
"क्यों?"
"दो दिनों के लिए मैं टूर पर बाहर क्या गया, तुम लोगों ने मेरी आलमारी, उसमें
रखी चीजों, किताबों आदि को ही उथल-पुथल कर दिया? कौन आया था मेरे कमरे में,
कोई कुछ बोलता क्यों नहीं? ऐ घन्नू! इधर आओ, क्या तुम आए थे मेरे कमरे में?"
"घन्नू को तो जबसे आपने पिछले महीने अपना बॉथरूम इस्तेमाल करने के लिए डाँटा
है, तब से वो आपके कमरे से अटैच बॉथरूम में पेशाब करने भी नहीं जाता। बेचारा!
आपकी अलामत-मलामत के डर से तो वो अब आपके कमरे की तरफ झाँकता भी नहीं।"
"अब क्या मेरे पास यही काम रह गया है कि कहीं से आऊँ, लिखने-पढ़ने की सोचूँ, तो
सबसे पहले अपना कमरा, अपनी आलमारी, मेज, किताबें वगैरह ठीक करता, सरियाता
फिरूँ? तब पढ़ने-लिखने बैठूँ?"
"आप, दिन-भर दफ्तर में काम-काज के बाद, थकते नहीं क्या, जो घर आते ही
लिखने-पढ़ने की सनक सवार हो जाती है?"
"मेरा ध्यान डॉयवर्ट मत करो, मैं जो पूछ रहा हूँ, उसे बताओ। मेरे एबसेंस में
मेरे कमरे में कौन आया था?"
"आफत का परकाला मत बनिए। और कौन जा सकता है आपके कमरे में? मैं ही गई थी। कल
महरिन के साथ, आपके कमरे की साफ-सफाई करवा रही थी। आपकी किताबों-डॉयरियों से
तो कमरे में चलने की जगह ही नहीं बची है। कोई झाड़ू-पोछा लगाए भी तो कैसे? पूरी
आलमारी, कबाड़ों से भर रखी है आपने। ये अखबारों की कतरनें, पुरानी मैगजीन्स
क्यों रखे हुए हैं, इन्हें किसी कबाड़ी वाले को क्यों नहीं बेच देते? दसियों
साल पुरानी इन मैगजीन्स को जमा करके क्या करेंगे? अरे पढ़िए-लिखिए, कोई मनाही
नहीं है। लेकिन इनमें से गाहे-बगाहे कुछ छाँटते-बेचते भी रहिए। ये क्या कि
कमरे की सभी आलमारियाँ ऊपर से नीचे तलक, पत्र-पत्रिकाओं से ठसा-ठस भर लिया है।
इनमें से कुछ किताबें, मैगजीन्स को तो आपने हाथ भी नहीं लगाया है। बस्स,
पुस्तक मेले से खरीदी और लाकर सजा दिया, अपनी आलमारियों में।"
"अऽरे, तुम्हें क्या पता कि लिखने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है? लिखना
खिलवाड़ है क्या? अपने लिखे हुए एक-एक पन्ने को दसियों बार पढ़ते, जरूरत होने पर
काटते-फाड़ते दुरुस्त भी करना पड़ जाता है। पचीसों लेखकों की पचासों किताबें,
साथ ही समय-समय पर नियमित पत्र-पत्रिकाएँ भी खरीदनी, पढ़नी पड़ती हैं। दसियों
जगह की सैर करनी पड़ सकती है। रिफरेंसेज आदि ढूँढ़ने के लिए जाने कितने ही लोगों
से कितनी ही बार मिलना पड़ जाता है। और-तो-और उनसे मतलब की बात उगलवाने के लिए
बहत्तरों तरह की लंतरानियाँ भी बतियानी पड़ती हैं। हर कविता-कहानी-उपन्यास की
अपनी पृष्ठभूमि-कथाभूमि-भावभूमि होती है। पता नहीं कब, कौन सा धड़ाम-धकेल
आइडिया, दिमाग में क्लिक कर जाए? ये कोई दाल-भात का कौर नहीं कि थाली सामने आई
और गप्प से लील लिया।"
"दाल-भात बनाना भी कोई खिलवाड़ नहीं है। आप तो ढंग की खिचड़ी भी नहीं बना पाते।
सिवाय चाय-कॉफी बनाने के, आपको आता ही क्या है?"
"अच्छा, अब ज्यादा लेक्चर मत झाड़ो। ये बताओ कि तुम्हें मेरी ऑलमारी को
उथल-पुथल करने की आवश्यकता ही क्यों पड़ी?"
"महीनों से आपकी किताबें, जमीन पर ही पड़ी थीं। टेबल पर कुछ पत्र-पत्रिकाएँ भी
अस्त-व्यस्त सी बिखरी पड़ी थीं। तीन दिन बाद महरिन आई थी, तो सोचा आपके कमरे
में भी साफ-सफाई करवा दूँ, सो झाड़ू-पोछा करवाने चली गई। फर्श और टेबल पर
अस्त-व्यस्त, बिखरी आपकी किताबों, पत्रिकाओं को ऑलमारी में लगाने वास्ते जब
ऑलमारी खोला, तो क्या देखती हूँ कि उसमें तो तिल रखने की भी जगह नहीं है।
किताबें, डॉयरियाँ, पत्र-पत्रिकाओं-अखबारों की कतरनें आदि बेतरह-बेतरतीबी से
आलमारी में ठूँसी पड़ी थीं। मैंने उन्हें बाहर निकाला, एक-एक को करीने से लगा
दिया। ऑलमारी में जगह-ही-जगह बन गई।"
"और मेरी जो किताबें नीचे फर्श पर पड़ी थीं, उनका क्या किया?"
"काऽहे एतनाऽ अलफ हो रहे हैं? उन्हें भी आलमारी के निचले खानों में लगा दिया
है, जाकर देख लीजिए।"
"कितनी बार कहा है कि मेरी चीजें मत छुआ करो। इधर-उधर हो जाने से मुझे असुविधा
होती है। चीजों को ढूँढ़ने-खोजने में समय की बरबादी अलग से होती है। मुझे पता
रहता है कि मेरी चीजें, किताबें, कापियाँ कहाँ रखी हैं, ऐसे में नाहक खोजबीन
में मेरा बहुमूल्य समय बर्बाद होता है। प्लीज मेरे सामान वगैरह जहाँ हैं, वहीं
रहने दिया करो।"
"तो क्या घर में झाड़ू-पोछा भी न करवाऊँ? आपसे कितनी बार कहा कि अपनी इन पुरानी
किताबें-मैगजीन्स आदि को ठिकाने लगा दीजिए, लेकिन आपके कानों पर जूँ रेंगते ही
नहीं। इन्हें कबाड़ी के हाथों बेचने के नाम पर अगिया-बैताल हो, अलबी-तलबी
छाँटने लगते हैं।"
"मेरे कमरे को छोड़ कर भी तो, साफ-सफाई का ये काम हो सकता है?"
"अऽरे वाह! महरिन से हफ्ते में दो दिन, सभी कमरों में झाड़ू-पोछा लगवाने की बात
तय हुई है। फिर, झाड़ू-पोछा करवाऊँ या नहीं, पैसे तो वो पूरे ही लेगी न?"
"ठीक है। मुझे तुम्हारे झाड़ू-पोछे से एतराज नहीं है। बस्स, जब मैं घर में रहा
करूँ, तभी मेरे कमरे में साफ-सफाई करवाया करो। अब ये क्या सुबह-सुबह छुट्टी के
दिन झाड़ू लेकर बैठ गई, देखो तो कितना धूल उड़ रहा है? दो घड़ी चैन से बैठना
चाहूँ, तो वो भी संभव नहीं।"
"कल रात, तेज अंधड़ में आपके कमरे की खिड़की खुली रह गई थी। दो दिन की सारी
साफ-सफाई बेकार हो गई। आप जरा ये अखबार लेकर बाहर धूप में बैठिए, तब-तक मैं इस
कमरे में झाड़ू लगा देती हूँ।"
"अऽरे ये देखो, अखबार में क्या छपा है? 'ज्यादा साफ-सफाई से मनुष्य, एलर्जी के
प्रति संवेदनशील हो जाता है, जो कहीं-न-कहीं उसके स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं
है।' और जो तुम मुझे ज्यादा चाय पीने के लिए रोकती-टोकती हो न! देखो क्या छपा
है...? 'चाय पीने से तन-मन में नई ऊर्जा और ताजगी का संचार होता है।'
"ठीक है, तब आप अपने आप ही अपने कमरे की साफ-सफाई कर लीजिए, मैं भी बाहर धूप
में बैठने जा रही हूँ। तीन दिन बाद सुनहली धूप खिली है। धूप सेंकने का मन करे
तो कुर्सी लेकर आप भी बाहर आ जाइएगा। और हाँ, फ्रिज में एक कटोरे में धुल कर
अंगूर रखा है, वो भी लेते आइएगा। बड़े आए पढ़वइय्या-लिखवइय्या की दुम, कहीं के?"
"चलो, आज मैं भी तुम्हारे साथ थोड़ी देर धूप सेंक लेता हूँ।"
"फिर, बाहर आ जाइए। मैं कुर्सी लेकर चल रही हूँ।"
"वैसे आज, धूप तो बहुत अच्छी निकली है।"
"कल-परसों जब आप टूर पर गए थे, तब धूप नहीं निकली थी। आज आप घर पर हैं, तो धूप
भी बहुत अच्छी खिली है। वैसे भी, जाड़ों में धूप में बैठना, सेहत के लिए बहुत
अच्छा होता है।"
"इससे दिल और दिमाग, दोनों दुरुस्त रहते हैं।"
"तब तो आपके लिए ये धूप ज्यादा उपयोगी है... हें-हें-हें।"
"हें-हें-हें... ये अंगूर तो बहुत मीठे हैं, कहाँ से खरीदा इन्हें?"
"पता नहीं, आप कहाँ से अंगूर खरीदते हैं, मीठे निकलते ही नहीं। आपको मीठे
अंगूरों की एकदम पहचान नहीं है। आज सुबह ही ठेले पर एक आदमी अंगूर बेचते हुए
इधर से निकला था, उसी से पाव-भर खरीदा है।"
"वाकई भई! तुम्हारी पसंद तो लाजवाब है। काफी मीठे अंगूर हैं। मजा आ गया। आधा
किलो खरीद लेना चाहिए था।"
"कल कबाड़ी वाले को कुछ रद्दी पेपर्स आदि बेचा था, उन्हीं पैसों से खरीदा है।"
"अऽरे! मेरे किसी कागज-पत्तर को रद्दी समझ कर बेच तो नहीं दिया न?"
"किसकी शामत आई है?"
"समय मिलता नहीं, काम बहुत ज्यादा है। मैं तो खुद चाहता हूँ कि किसी दिन अपनी
पुरानी किताबें, मैगजीन्स, डॉयरियों को छाँट कर अलग कर दूँ, लेकिन मौका ही
नहीं मिल रहा। बड़ी दिक्कत है।"
"ए जी, एक बात कहूँ?"
"हाँ, कहो।"
"कल दोपहर में मैं आपकी एक पुरानी डॉयरी पढ़ रही थी। उसमें आपने अपने स्कूली
दिनों की किसी लड़की का जिक्र करते, बल्कि उसी को लक्ष्य करते, दो-तीन कहानियाँ
लिखने की बात कही है। हालाँकि एक कहानी में आपने ये बात स्वीकारी भी है कि वो
आपकी एक-तरफा मुहब्बत थी। लेकिन जो भी हो, डॉयरी पढ़ने से तो ऐसा लगा कि आप
उसको बहुत चाहते थे। क्या अभी भी उसके लिए आपके मन में जगह है?"
"अऽरे भई! तुम भी कहाँ की, कब की, किसकी बातें लेकर बैठ गईं? वो तो तीसेक साल
पुरानी बातें हैं। अब तो वो दो-चार बच्चों की अम्मा भी हो गई होगी। हाँ...
चाहता तो था... पर वो कॉलेज के दिनों की बातें हैं। फिर ऐसा दौर तो लगभग हर
व्यक्ति के जीवन में आता होगा। मेरी समझ से ऐसा लगाव शायद... उम्र के तकाजे वश
होता हो? फिर आदमी कब घर-परिवार, दाल-रोटी, जीवन की आपाधापी के चक्कर में पड़
जाता है? इश्क-विश्क का भूत कब उतर जाता है? पता ही नहीं चलता।"
"फिर भी, ऐसी पुरसुकून बातें, पुराने दिनों की यादें ताजा हो जाना, अच्छा तो
लगता ही है। देखिए न! जिक्र छिड़ते ही, आपका चेहरा भी खिल उठा। चेहरे की रंगत
ही बदल गई। मधुरे-मधुरे मुस्कियाने लगे। चेहरे पर एकदम से हरियाली छा गई।"
"बेशक, स्कूल-कॉलेज के दोस्त, उन संग बिताए खट्टे-मीठे पल, अलल-बछेड़ों से दिन
भी भला कभी भूलते हैं? अतीत की वो यादें, वो अनुभव तो गूँगे के गुड़ के मानिंद
अवर्णनीय हैं। ऐसी बातें किसे अच्छी नहीं लगेंगी? पर अब तो ये सब बीते दिनों
की बातें हैं।"
"आज भी वो लड़की अगर, राह चलते आपको कहीं अचानक बाजार, दफ्तर, ट्रेन या बस में
दिख जाए, तो आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या होगी?"
"ऐसा खयाल, पहले कभी जेहन में नहीं आया। फिर, अब इस उम्र में ऐसा सोचना ही
बकवास लगता है। लोग क्या कहेंगे, और फायदा भी क्या? वो जहाँ रहे खुश रहे, यही
दुआ है। मैं तो वैसे भी इस बात का पक्षधर हूँ कि इनसान स्नेह चाहे किसी से
करे, अंततः... प्यार तो पत्नी से ही करेगा न?"
"इसमें भला क्या शक है! लेकिन, आप तो एकदम्मैऽ इमोशनल हो रहे हैं? भई! गजब का
त्याग, प्यार और झुकाव है, उसके प्रति। होंठो से अभी भी उसकी खुशी के लिए
स्नेहासिक्त सी... दुआ ही निकल रही है। वैसे इसमें फायदे-नुकसान या लोगों के
परवाह जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिए। आज किसके पास टाइम है, फटे में टाँग
अड़ाने की? बहरहाल... गौरतलब बात तो ये है कि आपके दिल के किसी कोने में अभी भी
उसके लिए 'सॉफ्ट-कॉर्नर' मौजूद है?"
"ठीक से कुछ कह नहीं सकता। पर... तुम्हें आज ये क्या सूझी, जो ऐसी दिलफरेब
बातें कर रही हो? तुम्हारा मगज तो ठीक है न?"
"नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। मेरा मगज एकदम दुरुस्त है। लेकिन आपके चेहरे पर
बारहा आ रही नीलिमा-लालिमा-हरीतिमा आदि बता रही है कि आपको इन बातों में मजा आ
रहा है।"
"विषय ही ऐसा छेड़ दिया तुमने। फिर ऐसी बातों में किसे मजा नहीं आएगा? खैर, ये
सब छोड़ो, मेरी जिंदगी तो खुली किताब के मानिंद है। अपने और अपनी बीती जिंदगी
के बारे में ढेरों किस्से-कहानियों के माध्यम से तो मैं कुछ-न-कुछ अपनी डॉयरी
में लिखता-जोड़ता-घटाता, तुम्हें बताता ही रहता हूँ, जिन्हें गाहे-बगाहे तुमने
पढ़ा-सुना भी है। पर देखा जाए तो आज तुमने मेरा अच्छा-खासा इंटरव्यू ले लिया।
अब ये बताओ कि स्कूल-कॉलेज के दिनों में तुम्हारा किसी से कोई चक्कर-वक्कर था
कि नहीं? या झुट्ठैं, खाली-मूली मेरा इंटरव्यू लिए जा रही हो?"
"अऽरे भाई, मेरा किसी से कोई चक्कर-वक्कर नहीं था। मैं तो बिलकुल सीधी-सादी
लड़की थी। मम्मी की कड़ी नजर, मुझ पर हमेशा ही बनी रहती थी। सुबह बस्स, कॉलेज
जाना। कॉलेज छूटते ही सीधे घर आना। बाजार जाना होता तो भी मम्मी साथ ही
जातीं।"
"क्या कोई सहेली-वहेली नहीं थी? उसके घर भी तो कभी-कभार आना-जाना होता होगा?
कभी कुछ खेलने, एक्स्ट्रा-क्लॉस, या नोट्स वगैरह माँगने, सिलाई-कढ़ाई, क्रोशिया
आदि सीखने-बुनने, किसी सहेली के घर जाना तो होता ही होगा?"
"लड़कियों के बारे में, काफी सूक्ष्मतम, गहनतम के साथ अधुनातन जानकारी भी रखते
हैं आप...? सहेलियाँ थी क्यों नहीं! एक तो बिलकुल पड़ोस में ही रहती थी। उसके
यहाँ जाना क्या होता, वो तो अक्सर ही मेरे घर आ जाती। खाली समय में हम-लोग,
लूडो, साँप-सीढ़ी या ओक्का-बोक्का खेलते, या वी.सी.आर. पर कोई पिक्चर देखते।
इनके अलावा और कोई खेल जानते ही नहीं थे हम-सब। बाकी समय भाई-बहनों के साथ
खेलते-पढ़ते ही बीत जाता।"
"मेरा आशय नैन-मटक्का वाले खेल से था। किसी से प्यार हुआ था? किसी को चाहती
थी? खैर... छोड़ो, ये बताओ, शादी से पहले तुम्हें कितने लड़कों ने देखा था? ये
तो तुम भी जानती हो कि मैंने सिर्फ तुम्हें ही देखा था, और शादी भी तुम्हीं से
हो गई।"
"आपने सिर्फ मुझे ही देखा, या आपको दूसरी लड़की देखने का अवसर ही नहीं मिला?"
"यही समझ लो। तुम्हें देखने के बाद भला, किसी और के बारे में सोचा भी कैसे जा
सकता था?"
"ऐसी बात तो नहीं है। मुझमें ऐसा क्या है, जो औरों में नहीं था। मैं भी तो
बाकियों जैसी ही थी। लेकिन मैंने तो सुना था कि आपको देखने, ज्यादा वरदेखुआ आए
ही नहीं, तो अम्मा ने ही एक दिन कहा कि... 'बेटा यहीं शादी कर लो, नहीं तो
कहीं... वही वाली कहावत चरितार्थ न हो जाए... 'आधी छोड़ पूरी को धावे, आधी मिले
न पूरी पावे।"
"तुम्हें, ये सब बातें किसने बताई?"
"अम्मा ने, और कौन बताएगा?"
"तब तो ठीक ही बताया होगा। टाइम-टाइम की बात है। रूप-लावण्य-माधुर्य में
तुम्हारा कोई सानी नहीं था। अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ, बताऊँ भी तो क्या?
बस्स ये समझ लो, तुम मेरे लिए बेहद खास रही। हाँ... मगर तुमने बताया नहीं कि
मुझसे पहले तुम्हें और किस-किस ने देखा? उनसे क्या-क्या बातें हुईं, कुछ इस
बारे में भी बताओ?"
"अब, जब आप इतना जोर दे ही रहे हैं तो बताए देती हूँ। आप से पहले मुझे देखने,
तीन लड़के आए थे। एक तो... जब मैं इंटर में थी, तब देखने आया था। मेरे घर में
उस समय कोई शादी-वादी के लिए तैयार नहीं था, लेकिन पापा को जानने वाले एक अंकल
जी थे। वे पापा से भी ज्यादा मेरी शादी के लिए परेशान रहते थे। वही ढूँढ़ कर
लाए थे। पर कुछ बात बनी नहीं। और दो लड़के तब आए थे, जब मैं ग्रैजुएशन में थी।
पर, जब वो मुझे देखने आए थे तो... उनके साथ क्या-क्या बातें हुईं थीं, अब कुछ
ठीक से याद नहीं। काफी पुरानी बातें हैं। मैं भी नादान ही थी, और वो लड़के भी
बेवकूफों की तरह ही बतियाते लग रहे थे।"
"उनकी कुछ बातें तो... याद ही होंगी?"
"हाँ... थोड़ा-थोड़ा याद है। पहले ने मेरा नाम पूछा था। फिर, किस कक्षा में पढ़ती
हैं? क्या-क्या विषय ले रखा है? और आगे, जिस विद्यालय में पढ़ती थी, उसका नाम
भी पूछा था।"
"और कुछ नहीं पूछा था? जैसे कोई हॉबी-वाबी...?"
"वैसे इस बारे में ठीक-ठीक कुछ याद नहीं। वैसे आपको काफी मजा आ रहा है न?"
"प्रसंग ही इतना मजेदार है। अच्छा, दूसरे के बारे में ही कुछ बताओ?"
"दूसरा लड़का तो अपने दोस्त के साथ मुझे देखने आया था। मुझे याद है, मेल-मिलाप,
चाय-पानी के बाद जब हम-लोगों का परिवार मेहमानखाने में बैठा था, तो मैंने गौर
दिया कि उस लड़के का दोस्त बीच-बीच में अपनी जेब से कंघी निकालकर, पूरे समय
अपने बाल ही ठीक करता रहा। उसकी इस हरकत पर मुझे बार-बार हँसी छूट जाती। जिसके
लिए मम्मी भी मुझे बीच-बीच में घूर लेतीं।"
"अच्छा ये बताओ, दूसरा वाला दिखने में कैसा था? किसी गाड़ी में आया था, या
रिक्सा, टेंपो में? उसके साथ, उसके घर-परिवार के और कौन-कौन थे?"
"बताती हूँ। बताती हूँ। काहे पोंछियाझार... बगछुट से हो रहे हैं? वो बाँका
सजीला नौजवान था। मौके अनुसार सुरुचिपूर्ण कपड़े भी पहन रखा था। वो लोग एक कार
में आए थे। लड़के के साथ उसके माँ-बाप, और बुआजी भी थीं। हम भाई-बहनों ने सबसे
पहले, कार से उतरते उस लड़के को खिड़की से ही देख लिया था।"
"अच्छा! और कुछ बताओ उसके बारे में। कुछ बातें-वातें भी तो की होगी उसने?"
"बड़ा मजा आ रहा है न? तो सुनिए। उस लड़के ने चाय पिया, फिर पूछा क्या मैं आपको
पसंद हूँ?"
"'आप' लगा कर बात किया था?"
"अउर नहीं तऽ काऽ? रेलवे में अच्छी-खासी नौकरी थी उसकी।"
"कद-काठी में कैसा था?"
"सो-सो', बहुत बुरा भी नहीं था। लंबाई, कुछ-कुछ आपके जैसे ही थी। मुझे देख कर
वापस घर जाने के बाद, उसने मुझे एक ठो चिट्ठी भी लिखी थी।"
"कहीं एक मासूम सी नाजुक सी लड़की, बहुत खूबसूरत मगर साँवली सी... 'कुछ इसी
टाइप की, फिल्मी अंदाज में चिट्ठी लिखी होगी उसने?"
"जी नहीं, कोई फिल्मी-विल्मी अंदाज में नहीं लिखा था। लेकिन... अभी कुछ भी याद
नहीं आ रहा कि उसने चिट्ठी में क्या लिखा था?"
"कितनी बड़ी चिट्ठी थी? एक पेज की, दो पेज की, या और बड़ी, तीन-चार पेज की?"
"अऽरे, पेज-वेज कुछ नहीं था। किसी डायरी-वॉयरी का पन्ना फाड़ कर लिखा था।"
"चिट्ठी किसके नाम लिखी थी उसने?"
"जाहिर है, मेरे नाम।"
"जानेमन... सपनों की रानी... मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता... कब होगा हमारा
मिलन... चलो भाग चलें' ...कुछ ऐसा ही लिखा था न?"
"बता रही हूँ न! जरा याद करने दीजिए। अब ठीक-ठीक कुछ याद नहीं आ रहा...।
हाँ... लेकिन ऐसी ऊल-जलूल बातें... नहीं लिखा था।"
"वो चिट्ठी कहाँ है?"
"अऽरे, आप तो उस चिट्ठी को लेकर एकदम्म से सीरियस हो गए? कुछ-कुछ नर्भसाऽये से
भी दिख रहे हैं। उस चिट्ठी को तो घर में सभी छोटे-बड़ों ने भी पढ़ा था। फिर, उसे
तो मैंने उसी दम फाड़-फूड़ भी दिया था। लेकिन, आपने ये ऊल-जलूल की भाषा कहाँ से
सीखी? इतना सब-कुछ आपको कैसे पता है?"
"एक्चुअली, हमारे खानदान में सभी छोटे-बड़ों को, बिना माँगे ही परामर्श आदि
देने की पुरानी आदत है। जाहिर है, उसी समृद्ध परंपरा का वाहक होने के नाते,
कुछ असर मुझ पर भी होना लाजिमी था। यार-दोस्त, जब कभी भी पढ़ाई-लिखाई से दीगर
मामलात? लेकर हमारे सम्मुख हाजिर होते, तो ऐसे दुर्लभ मौकों पर, आदतन-फितरतन
या समझ लो इरादतन..., संबंधित पक्ष को हम कुछ ऐसी ही चिट्ठियाँ लिखने का सुझाव
दे डालते। प्रकाशांतर से शनैः-शनैः... जानकारी में भी इजाफा होता चला गया।"
"जिससे, कालांतर में आप, लिखने-पढ़ने-गढ़ने भी लगे?"
"जाहिर है। अच्छा, ये बताओ जब मैं तुम्हें देखने गया था तो एक साँवले रंग के
सज्जन, जिन्हें तुम लोग बार-बार चाचा जी, चाचा जी, कह कर संबोधित कर रहे थे,
मेरे बगल ही बैठे थे। किसी बात पर मुझसे कहा था कि उन्होंने तो इंटर में ही
रेस्निक हेलीडे, यूरोडोव, फिनार, लूनी की किताबें रिवाइज कर लीं थीं, आजकल वो
कहाँ हैं?"
"वो शुक्ला जी थे। उन्होंने कुछ गलत नहीं कहा था। वो अपने जमाने के एम.एस.सी.
टॉपर रहे हैं। बड़ी मुश्किलों से उन्होंने अपने बलबूते ही छ बहनों की शादियाँ
की। उनके दो लड़के हैं। एक इंजीनियरिंग, तो दूसरा डॉक्टर है।"
"अऽरे भई मैं तो ये बातें उनकी तारीफ में ही कह रहा था।"
"तारीफ में! अपनी उम्र से आधा से ज्यादा का समय तो मैंने आपके साथ गुजार दी
है। क्या मैं आपकी 'बॉडी-लैंग्वेज' नहीं समझती? मैं तो आपकी रग-रग से
भली-भाँति वाकिफ हूँ। बड़े आए खींसे काढ़ते, निपोरा बतियाने वाले।"
"खैर... छोड़ो। ये बताओ, वो चिट्ठी लिखने वाला लड़का अगर आज भी तुम्हें कहीं
भूले-भटके मिल जाए, तो तुम्हारा क्या रेस्पॉन्स होगा?"
"किसके प्रति?"
"जाहिर है, उस लड़के के प्रति।"
"मुझे तो अब ठीक से उसका चेहरा भी याद नहीं। उस लड़के से लगभग पंद्रह-बीस मिनट
की मुलाकात में एक-दो बार ही निगाह मिली होगी। ऐसे में भला मुझे कहाँ उसकी
सूरत याद होगी?"
"अच्छा ये बताओ, अगर ईमानदारी से पूछूँ। शादी से पहले तुम्हें देखने जितने भी
लड़के आए थे, उनमें कोई तो ऐसा होगा, जो तुम्हें बेहद पसंद होगा? क्या उनमें
मैं भी कहीं था?"
"अगर ईमानदारी की बात कहूँ, तो उस समय पसंदगी-नापसंदगी जैसी कोई बात, मेरे
जेहन में थी ही नहीं।"
"और, मुझसे मुलाकात के बाद?"
"तब तक तो मैं काफी समझदार हो गई थी। अपना अच्छा-बुरा सोचने-समझने की क्षमता
भी मुझमें आ गई थी।"
"ये बातें तुम मुझे खुश करने वास्ते कह रही हो न?"
"जाहिर है, चिढ़ाने के लिए तो नहीं ही कह रही होऊँगी? सीरियसली कह रही होऊँगी?
फिर मजाक तो आपको वैसे भी पसंद नहीं है?"
"तुम्हें पता है! शादी है ही विपरीत ध्रुवों का मिलन। 'एक आदमी, जो खिड़कियाँ
खोल कर सोने का आदी हो, एक औरत, जो खिड़कियाँ बंद करके सोने की आदी हो, शादी के
बाद उन्हें एक ही छत के नीचे सोना पड़ता है।"
"हाँ, मालूम है। 'जॉर्ज बर्नाड शा' के विचार हैं ये।"
"जॉर्ज बर्नाड शा' से अच्छा याद आया, अभी हाल ही में पढ़ा है। उन्होंने 'द मैन
एंड द सुपरमैन' में लिखा है... 'नारियाँ हमें खतरे में देख कर काँपने लग जाती
हैं। हमारे मर जाने पर रोती हैं, लेकिन वे आँसू वस्तुतः हमारे लिए नहीं होते।
परिवार के मुखिया के रूप में हमारे मर जाने से वे अपने और आश्रितों की रोटी
छिन जाने की वजह से रोती हैं।' इस कथन से तुम कहाँ तक सहमत हो?"
"क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि बात की दिशा किसी और तरफ जा रही है?"
"चलो, खैर... छोड़ो।"
"नहीं, कुछ और भी जानकारी यदि 'सॉफ्ट-कॉर्नर' के बारे में चाहिए, तो लगे हाथ
वो भी पूछ लीजिए?"
"अऽरे भई, नाराज क्यूँ होती हो, मैंने तो बस्स, तुम्हारी बात पर... यूँ ही बात
छेड़ दी थी।"
"पर इतना तो पक्का है। मेरे अंदर उन लड़कों के प्रति, कोई 'सॉफ्ट-कॉर्नर' न तब
था, न अब है।"
"बेचारे लड़के! तुम भी न, बड़ी जालिम हो।"
लेकिन, उनके मन में मेरे लिए 'सॉफ्ट-कॉर्नर' होगा या नहीं, कह नहीं सकती?"
"अब तुम अपने मन में ये जालिमाना खयाल लाकर, मुझ पर तो जुल्म न करो?"
"उन लड़कों के बारे में जानने की इच्छा तो आपने ही व्यक्त की थी। फिर, अब क्यूँ
जलन होने लगी?"
"मुझे क्यूँ जलन होने लगी? फिर, तुम्हें भी तो अब पति-बच्चों-परिवार संग
व्यस्तता में कहाँ फुर्सत होगी, उन लड़कों के बारे में वाहियात बातें सोचने
की?"
"पर कुछ भी हो, ऐसी बातें वाहियात तो नहीं ही होतीं। पड़ोसियों, रिश्तेदारों
संग मीन-मेख, शिकवा-शिकायतें, सास-ननद की लगाई-बुझाई आदि बतियाने के बजाय, ऐसे
विषयों पर घंटों चर्चा करना, दिल को सुकून देने वाला तो होता ही है। बशर्ते कि
ऐसी खुशनुमा, सुनहली धूप खिली हो, और हम फुर्सत में हों, जो कि आज के दौर में
बमुश्किलन ही नसीब होता है।"
"देखा जाए तो... लड़कियाँ, वक्त के साथ खुद को एडजस्ट कर ही लेती हैं।"
"सो तो है ही। पर मैं इन अंतःसलिला बातों को लेकर, न किसी तरह की प्रश्नाकुलता
से भरी हूँ, न खुद को प्रश्नांकित करती ही चलती हूँ। आपको भी देश-काल,
स्थिति-परिस्थिति अनुसार ही, समझना-चलना सोचना चाहिए। किसी तरह की असुरक्षाबोध
से बचते, कम-अज-कम अंतःकरण की आवाज, अवश्य ही सुननी चाहिए।"
"तुम्हें ये कभी-कभी क्या हो जाता है? बाजदफे, अतिव्यंजनायुक्त,
वाग्विदग्धतापूर्ण और शुद्ध साहित्यिक भाषा-शैली में बतियाने लगती हो?
रूप-विधान और विषय-वस्तु का ऐसा मणिकांचन संयोग विरले लोगों में ही देखने को
मिलता है। बाजमौके... तुममें किस कर, यूँ परकाया-प्रवेश हो जाता है?"
"आपके ऐसे सवालों में मुझे तो व्यंजना कम, लक्षणा और अभिधा ज्यादा दिख रहे
हैं।"
"अऽरे भई, अब बस्स करो। तुम्हारी ये गुंजलक बातें कभी-कभी मेरी समझ से परे
होने लगती हैं। मुझे पता है, ग्रैजुएशन में तुम्हारा भी एक सब्जेक्ट, हिंदी
साहित्य था।"
"आखिर, एक अँखुआते हुए साहित्यकार की बीवी होने के नाते, मुझ पर कुछ तो असर
होगा ही।"
"खैर छोड़ो। आज जब घर पर हूँ, तो सोचता हूँ, कुछ जरूरी काम-काज ही निबटा लूँ।"
"आपको तो, हमेशा अपने मतलब का ही काम-काज सूझता है। छुट्टी से याद आया। देखिए,
सीढ़ियों पर कितनी धूल जमा है? रेलिंग्स भी गंदी हो रही हैं। घुटनों में दर्द
के कारण, मुझे अब सीढ़ियाँ चढ़ने में दिक्कत होती है। सीढ़ियों और रेलिंग्स की
साफ-सफाई आज आप ही कर दीजिए, मैं पानी और कपड़ा लेकर आती हूँ।"
"अऽरे भई, छुट्टी का मतलब सिर्फ छुट्टी होता है। काम-वाम कुछ भी नहीं। सिर्फ
आराम।"
"और हम लोगों की भी कोई छुट्टी होती है कि नहीं?"
"जाहिर है, ये सवाल, सिर्फ सवाल के लिए किया गया सवाल होगा। मुझसे किसी जवाब
की दरकार नहीं होगी?"
"अच्छा! अब अपनी बारी आई, तो कुबोल बतियाते, बहँटियाने लगे। जनाब... मेरा ये
सवाल, जवाब की दरकार के लिए ही था। ये रहा बाल्टी में पानी, और पोंछे वाला
कपड़ा। अब फौरन-से-पेशतर शुरू हो जाइए।"
"कहाँ से शुरू करूँ?"
"जियादा चोऽना मत बतियाइए... छत वाली सीढ़ी से शुरू कीजिए, और कहाँ से? पता
नहीं दफ्तर में क्या काम-काज करते होंगे? इतनी छोटी सी बात भी नहीं समझ पाते?"
"वहाँ, समझाने वाले तुम्हारे जैसे नहीं होते न?"
"अच्छा, अब ये अखबार मुझे दीजिए, और शुरू हो जाइए। सुबह से ही अखबार में पता
नहीं क्या-क्या चाट रहे हैं? जबकि मैं अभी तक हेडलाइन्स भी नहीं देख पाई हूँ।"
"अऽरे हाँ! मैं तो तुम्हें बताना ही भूल गया। देखो ये खबर तुम्हारे मतलब की ही
है। ये हेडिंग पढ़ो... 'संबंधों में कैसे मधुरता लाएँ?"
"लाइए, अखबार इधर दीजिए, मैं खुद पढ़ लूँगी। अब इस उम्र में संबंधों में मधुरता
लाने की कोशिश में, बिलावजह... कहीं शुगर-लेबल ही न बढ़ जाए? आप तो बस्स, ये
बाल्टी उठाइए, और काम पर लग जाइए।"
"तुम भी न! किस कदर निर्दयी-कठकरेजी-पथरकरेजी हो, ये कोई मुझसे आकर पूछे?
लेकिन... मुझे तो दो दिन के टूर के बाद थकान सी लग रही है, और नींद भी आ रही
है।"
"अऽरे, आपसे आज जरा घर का काम करने के लिए क्या कह दिया, आप तो ऐसे हिम्मत हार
बैठे, जैसे धनुष-यज्ञ में आए राजा गण, धनुष न उठा पाने पर, थक-हार कर अपने आसन
पर जा बैठे थे। 'श्रीहत भए हारि हिय राजा। बैठे निजि निज जाइ समाजा।' ...अब
उधर किचन की तरफ कहाँ चले?"
"अऽरे भई, काम-काज से पहले, तन-मन में फुर्ती जगाने वास्ते, अदरक, कालीमिर्च,
इलायची वाली एक ठो कड़क चाऽह तो पीना ही पड़ेगा न?"
"अच्छा, अब जब बना ही रहे हैं तो एक कप और बढ़ा लीजिएगा, मेरे लिए भी।"
"जो हुक्म मेरे आका...!"
"और सुनिए, वहीं किचन में मेरी थॉयरायड वाली दवा है। वो भी लेते आइएगा। आपसे
गुल-गपाड़ा बतियाने के चक्कर में सुबह, दवा खाना ही भूल गई... हें-हें-हें।"
"और, मैं भी तुम्हारे इस 'सॉफ्ट-कॉर्नर' के घनचक्कर में आज अपनी बी.पी. की दवा
लेना भूल गया... हें-हें-हें।"